देहरादून. चार धाम तीर्थ पुरोहितों द्वारा चार धाम देवस्थानम बोर्ड को भंग करने की मांग का विरोध केदारनाथ और अन्य स्थानों पर बेरोकटोक जारी है। तीर्थ पुरोहित संतोष त्रिवेदी ने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने खून से पत्र लिखकर तीर्थ पुरोहितों के हितों की रक्षा के लिए बोर्ड को भंग करने की मांग की थी।
देवस्थानम बोर्ड के खिलाफ गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ धाम के पास धरना जारी है। यह याद किया जा सकता है कि देवस्थानम बोर्ड के गठन के बाद से, गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ के चार धाम मंदिरों के तीर्थ पुरोहित इस कदम का विरोध कर रहे हैं। बोर्ड को भंग करने की मांग को लेकर वे लगातार मुख्यमंत्रियों और अन्य मंत्रियों से मिल चुके हैं, लेकिन बोर्ड को भंग करने की बजाय इसका विस्तार किया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि करीब दो साल पहले तत्कालीन सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में देवस्थानम बोर्ड का गठन किया गया था। चार धाम सहित कुल 51 मंदिरों का प्रबंधन बोर्ड के दायरे में लाया गया।
हाल ही में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस मुद्दे के समाधान के लिए एक उच्चाधिकार समिति गठित करने की बात कही है। गंगोत्री मंदिर समिति के सचिव दीपक सेमवाल ने कहा कि अगर 15 अगस्त तक हाई पावर कमेटी मांगों पर कार्रवाई नहीं करती है तो तीर्थ पुरोहित आंदोलन तेज करेंगे।
देवस्थानम बोर्ड क्या है
साल 2020 नवंबर-दिसंबर में उत्तराखंड सरकार ने बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री समेत प्रदेश के 51 मंदिरों का प्रबंधन हाथ में लेने के लिए चार धाम देवस्थानम एक्ट से एक बोर्ड, चार धाम देवस्थानम बोर्ड बनाया था।
इन मंदिरों में अवस्थापना सुविधाओं का विकास, समुचित यात्रा संचालन एवं प्रबंधन के लिए उत्तराखंड चारधाम देवस्थानम प्रबंधन अधिनियम का गठन किया गया है। बोर्ड के अध्यक्ष मुख्यमंत्री होंगे। संस्कृति मामलों के मंत्री को बोर्ड का उपाध्यक्ष बनाया गया है। मुख्य सचिव, सचिव पर्यटन, सचिव वित्त व संस्कृति विभाग भारत सरकार के संयुक्त सचिव स्तर तक के अधिकारी पदेन सदस्य होंगे।
हाईकोर्ट में इस याचिका की सुनवाई के दौरान सरकार के बचाव में देहरादून की रुलेक संस्था के वकील कार्तिकेय हरि गुप्ता ने कहा कि उत्तराखंड के मंदिरों के प्रबंधन के लिए बना यह पहला एक्ट नहीं है बल्कि ऐसा ही कानून सौ साल पुराना है।
गुप्ता ने कोर्ट को बताया कि वर्ष 1899 में हाईकोर्ट ऑफ कुमाऊं ने ‘स्क्रीम ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेशन’ के तहत इसका मैनेजमेंट टिहरी दरबार को दिया था और धार्मिक क्रियाकलाप का अधिकार रावलों व पण्डे-पुरोहितों को दिया गया था।
वर्ष 1933 में मदन मोहन मालवीय ने अपनी किताब में इसका ज़िक्र किया है। साथ ही, मनुस्मृति में भी कहा गया है कि मुख्य पुजारी राजा ही होता है और राजा चाहे तो किसी को भी पूजा का अधिकार दे सकता है।